ये जो तुम्हारे पास होने और न होने
के बीच का अंतर है,
ये दिवार पे पड़ी दरार सा हो गया है।
खिड़की नहीं, केवल दरार।
खिड़की तो होती ही है कि
बाहर की धूप हवा अंदर आए
और कैद सी उमस खत्म हो जाए।
पर दरार? वो तो चुप सी सीमांए लांघ जाती है।
कुछ बदल जाता है कमरे में।
कमरा भी नहीं जानता क्या।
ज़रा सी धूप मिट्टी सरक ही आती है
और कमरे की घुटन ज़रा सी छटपटाती है।
और इस लेनदेन के बाद,
कमरा कुछ और सील सा जाता है,
खुद को, थोड़ा और अकेला पाता है।
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